खास रिपोर्ट: अधीनस्थ सेवा चयन आयोग नही ये हो गया अस्त व्यस्त धन शोधन आयोग।

आशीष नियोलिया

लगातार पेपर लीक होते हैं, पेपर निरस्त होते हैं, खामियाजा कौन भुगतता है, वो युवा जो हजारों रुपए खर्च कर कोचिंग करके सरकारी नौकरी पाने की ख्वाहिश मैं अपनी सारी इच्छाओं से समझौता कर लेता है की कल सरकारी नौकरी लगेगी तो सभी इच्छाओं की पूर्ति हो जायेगी। फिर 300 से लेकर 600 रुपए एक परीक्षा शुल्क, पेपर सेंटर दूसरे सहर मैं होने पर पहाड़ के युवा 1000 से 2000 रुपए खर्च कर परीक्षा देने पहुंचते हैं, इस उम्मीद के साथ वापस लौटते हैं की इस बार तो अच्छा पेपर गया है सिलेक्शन पक्का है, कुछ दिन बाद एफआईआर दर्ज होती है की पेपर लीक हुआ है, जांच होती है, और पकड़े जाते हैं आरोपी, ये सब अब एक रोटेशनल सिस्टम ही हो गया है। इतनी जल्दी तो पुलिस किसी चोरी के कैसे का खुलासा भी नही करती जितनी जल्दी ये पेपर लीक करने वाले पकड़े जाते हैं, ऐसे पेपर तो स्कूल के कंप्यूटर से भी लीक नही होते हैं, जैसे अधीनस्थ चयन आयोग से हो रहे हैं। इतनी बार कारवाही होने के वाबजूद भी क्यों फिर पुनरावृत्ति हो रही है, चयन आयोग मैं क्या सुरक्षा का कोई प्रबंध नही है। या बिना शर्त किसी भी संस्थान से पेपर बनवा दिए जाते हैं, इतनी बार पकड़े जाने पर भी विभाग में बैठे कर्मचारियों अधिकारियों के कानो में में जूं नहीं रेंग रही, क्या उनको कारवाही का डर नहीं है, या फिर किसी बड़े का आशीर्वाद इन पर बना हुआ है, सत्ता में 0 टॉलरेंस की सरकार, फिर भी खुल्लम खुल्ला भ्रष्टाचार सरकार को भी सवालों के दायरे में खड़ा कर देती है। क्या सरकार का राज्य लोक सेवा चयन आयोग पर कोई नियंत्रण नहीं है या फिर सत्ता में बैठा कोई गॉडफादर इस पूरे लीकेज सिस्टम को ऑपरेट कर रहा है। जैसे जिस रफ्तार से uksssc में और अन्य राज्य/केंद्रीय परीक्षाओं में पेपर लीक हो रहे हैं, इतनी जल्दी और इतना ज्यादा लीकेज तो सरकारी पाइप लाइनों में भी नही होता है। इस तरह अगर युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ होता रहा तो गंभीर संकट युवा भविष्य के लिए उत्पन्न हो सकता है, गलत आदतों, अपराधों, और आत्महत्या के लिए कहीं न कहीं ये सरकारी तंत्र की कमियां भी जिम्मेवार हैं, एक उम्र तक परीक्षा देने के बाद युवाओं के पास कोई अन्य विकल्प नहीं रहता है, क्योंकि युवा केवल एक लक्ष्य लेकर अपना टाइम टेबल निर्धारित करते हैं, आजकल निरंतर बढ़ती प्रतिस्पर्धा और सुरक्षित भविष्य की चिंता जहां एक ओर युवाओं के लिए जीने मरने का प्रश्न बन चुकी है, वहीं योग्यता होने के बाद भी सरकारी तंत्र की नाकामी के चलते युवाओं के हाथ से रेत की तरह फिसल रहे रोजगार के अवसर देश की युवा पीढ़ी को मानसिक अवसाद की ओर धकेल रहे हैं। निजी क्षेत्र में बढ़ती प्रतिस्पर्धा कौशल विकास का अभाव, आर्थिक अस्थिरता और अस्थिर भविष्य युवाओं को असहज कर रहे हैं, वहीं सेना में अग्निवीर योजना के बाद युवाओं में और असमंजस की स्थिति पैदा हो गई है। जहां एक और सरकारी नौकरियों मैं निरंतर कटौती, सेना में अति लघु सेवाकाल, और निजी क्षेत्र में कभी महामारी, वैश्विक युद्ध तो कभी आर्थिक मंदी के कारण हजारों युवाओं को हाथ धोना पड़ा और आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा, इसने युवाओं के मन से निजी क्षेत्र में रोजगार के प्रति मोह भंग करने का ही कार्य किया है, कुछ वर्षों में लगातार हो रहे पेपर लीक के मामलों ने सरकार को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है, लगभग सभी राजकीय सरकारी भर्ती परीक्षाओं में एक के बाद एक पेपर लीक होने की घटनाओं का कोई भी स्पष्टीकरण न सरकार की ओर से दिया जा रहा है, न ही इस मजाक बन चुकी परीक्षा प्रणाली के सुधार को कोई बड़ा कदम। सरकार की ओर से उठाया गया है। रेवड़ी की तरह बांटे जा रहे एग्जाम पेपर इतनी आसानी से कैसे चयन आयोग के दफ्तर से बाहर निकल जा रहे हैं, क्या इसके पीछे किसी बड़े सफेदपोश का हाथ है, या सत्ता पर बैठे लोगों पर ही अफसरशाही हावी हो गई है, इसका जवाब सिर्फ सरकार के पास ही मिल सकता है, उत्तराखंड राज्य में अगर ऐसा ही लीकेज होता रहा तो वो वक्त दूर नहीं की युवा राज्य से ही पलायन न कर बैठें, सरकार को इस विषय पर अपनी नीति स्पष्ट करने की आवश्यकता है, विपक्ष मैं बैठकर सत्ता पर आरोप लगाना और सत्ता में विराजमान होते ही मौन व्रत धारण कर लेना क्या यही राजनैतिक दलों की परंपरा बन चुकी है। जो कुछ भी बीते वर्षों में उत्तराखंड अधीनस्थ चयन आयोग मैं हो रहा है, उससे समझ नही आ रहा की दाल में काला है या दाल ही काली है। हर बार पेपर लीक होना कुछ मुन्ना भाई पकड़े जाना और वाहवाही लूट लेना बस यही सरकारी तंत्र की आदत और राज्य की नियति बन चुकी है, अधीनस्थ सेवा चयन आयोग अब अस्त व्यस्त धन शोधन आयोग बन चुका है।

ऐसे तो न पहाड़ का पानी रुकेगा न जवानी रुकेगी—
जिस तरह पहाड़ में युवाओं को लेकर सरकार उदासीन हैं, उससे लगता है की जैसे पहाड़ में पानी होकर भी पानी को लोग तरसते हैं, वैसे ही रोजगार के अभाव और भ्रष्ट नियुक्ति प्रणाली के चलते राज्य अब जवानी को भी तरसेगा। पहाड़ में जवानी ही नहीं रुकेगी तो पानी कैसे रुकेगा।

कोरोना भी नही रोक सका युवाओं को गांव में—
कोरोना महामारी के दौर में जिस रफ्तार से गांव आबाद हुए, महामारी का असर कम होते ही उसी रफ्तार से खाली भी हो गए, कुछ एक को छोड़कर पहाड़ लौटे अधिकतर युवा फिर काम की तलाश में मैदानों की ओर लौट गए, गांव में फिर रह गए वही आँखरी दिन गुजार रहे बुजुर्ग जिनके लिए गांव उनकी आत्मा है, अब तो बचे खुचे युवा भी सरकारी नौकरी की कोचिंग के लिए शहरों में कमरा लेकर रहने लगे हैं।

Himfla
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Pahadi Bhula

Author has been into the media industry since 2012 and has been a supporter of free speech, in the world of digitization its really hard to find out fake news among the truth and we aim to bring the truth to the world.