बड़ा सवाल: आपदा के दौर में एसडीएम फरार हो जाए तो क्या करें?


दिनेश शास्त्री
देहरादून।
चंपावत सदर के एसडीएम अनिल चन्याल के रहस्यमय ढंग से गायब होने से कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। जब भारी बारिश के चलते प्रदेश में आपदा का दौर हो और सरकारी कार्मिकों के अवकाश पर रोक लगी हो, ऐसे में कोई प्रशासनिक अधिकारी कैसे अचानक बिना बताए गैरजिम्मेदाराना ढंग से गायब हो सकता है? वह किसी को खबर भी नहीं करते और न स्टेशन छोड़ने की अनुमति ही लेते हैं, फिर कैसे उसे व्यवस्था का अंग बनाए रखा जा सकता है? यह एक गंभीर प्रश्न है। आखिर ऐसी क्या वजह थी कि एक जिम्मेदार प्रशासनिक अफसर को इस तरह का व्यवहार करना पड़ा।


मान लिया कि काम की अधिकता इसकी एक वजह हो, किंतु बड़ा सवाल यह है कि क्या लोकसेवक को गैरजिम्मेदार होने की छूट दी जा सकती है? यह सवाल जिले के हाकिम से लेकर मुख्यसचिव तक से पूछा जाना चाहिए। यही नहीं सवाल तो उसके चयनकर्ता लोक सेवा आयोग से भी पूछा जाना चाहिए कि वह कैसे अभ्यर्थियों का चयन करता है जिनकी क्षमता काम का बोझ सहने की ही न हो। मुख्यमंत्री तो इस दशक को उत्तराखंड का दशक बनाने का सपना देख रहे हैं जबकि उनके ही निर्वाचन क्षेत्र का अधिकारी अभी से थक गया सा लगता है।


एसडीएम चन्याल सरकारी काम में कितने व्यस्त रहते होंगे, इसका तो पता नहीं किंतु सोशल मीडिया में वे खासे सक्रिय रहते हैं, उनकी आखिरी फेसबुक पोस्ट नौ सितंबर को साढ़े नौ बजे की थी। जिसमें उन्होंने लिखा था ‘ट्रैकिंग एंड लोंग ड्राइव इज ऑलसो ए पीस ऑफ माइंड…’।
चंपावत के लोगों से बात करने पर पता चलता है कि बेहद लो प्रोफाइल में रहने वाले चन्याल कुछ ‘ सात्विक’ प्रवृत्ति के से दिखते हैं। हालांकि लोगों के बीच उनका कोई राब्ता नहीं रहा है और न प्रशासनिक हल्के में ही उनकी कभी कोई धमक दिखी है। अगर ऐसा होता तो अपने सरकारी निवास से चुपचाप निकल कर शिमला पहुंच जाने वाले अधिकारी को कोई तो पहचानता। उनकी एक ही स्थान पर शिनाख्त हुई, जब पान के खोखे पर उन्होंने सिगरेट ली थी। उसके अलावा पूरे शहर में किसी व्यक्ति ने उन्हें पहचाना नहीं। है न हैरानी की बात! आजकल एसडीएम जैसे अफसर को बच्चा – बच्चा जानता है किंतु अनिल चन्याल को किसी ने शहर छोड़ कर जाते नहीं देखा।


आपको याद होगा केदारनाथ आपदा के वक्त भी एसडीएम स्तर के एक अधिकारी ने काम का बोझ असहनीय बताते हुए इस्तीफा दे दिया था। अधिकारियों को आम लोगों पर बेशक रहम न आए लेकिन अपने वर्ग पर वे खासे मेहरबान रहते हैं। तभी तो उस इस्तीफा देने वाले अधिकारी को वापस सेवा में बुला लिया गया था। चन्याल का भी क्या होगा? उसे भी माफ ही किया जाना है किंतु सवाल यह है कि एक वीआईपी जिले में अधिकारी इस तरह का बर्ताव कर रहे हैं तो दूरस्थ क्षेत्रों का आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि कैसे कैसे अफसरों को उत्तराखंड झेल रहा है?
आपको याद है न बीते अप्रैल माह तक चंपावत जैसे जिले को या तो आरामगाह मान लिया जाता था या फिर पनिशमेंट पोस्टिंग का नाम दिया जाता था। कारण यह कि यह जिला हमेशा हाशिए पर ही रहता था। मार्च में पूर्णागिरी मेला होने के अलावा यहां कोई अन्य गतिविधि होती भी नहीं थी। अब जबकि यह सीएम का निर्वाचन क्षेत्र हो गया है तो जिले के दिन बहुर आए और चंपावत उपेक्षा के भंवर से निकल कर वीआईपी जिला हो गया। जाहिर है उसी अनुपात में विकास गतिविधियां भी तेज हुई हैं तो अफसरों का काम बढ़ना भी स्वाभाविक है। लेकिन काम के बोझ को देख कर कोई अफसर रण छोड़ बन जाए तो क्या इसे स्वीकार किया जा सकता है? जाहिर है चयन से लेकर प्रशिक्षण तक सवालों की झड़ी लग रही है। आप कह सकते हैं कि एक अदद अफसर के आधार पर मूल्यांकन नहीं किया जा सकता किंतु याद रखें, जब चावल पकाते हैं तो उसका एक दाना देख कर ही अंदाज लगा लिया जाता है कि चावल कितना पक गया है। एक और प्रसंग का स्मरण दिलाना प्रासंगिक होगा। यूपी में एक आईएएस को कृष्ण भक्ति की ऐसी लगन लगी थी कि खुद को राधा समझ बैठे थे और घर दफ्तर सभी जगह वही आचरण करते देखे गए थे। ऐसे लोगों की जगह प्रशासनिक सेवा में नहीं होती बल्कि मनोवैज्ञानिक से परामर्श की जरूरत होती है। हमारा यह आशय कतई नहीं है कि अनिल चन्याल उस श्रेणी में पहुंच गए हैं बल्कि मंतव्य यह है कि प्रदेश आपदा से जूझ रहा है, अभी हाल में स्कूल का जर्जर शौचालय ढहने से एक निर्दोष मासूम की जान चली गई, ऐसे मौके पर अधिकारी गायब हो तो क्या उम्मीद की जानी चाहिए। यह सवाल खुद मुख्यमंत्री से भी पूछा जाना चाहिए। निष्कर्ष यह कि नौकरशाही को असीमित अधिकार प्राप्त हैं किंतु क्या इस बात की छूट होनी चाहिए कि वे मनमर्जी पर उतर आएं। लॉन्ग ड्राइव का शौक पूरा करना हो तो विधिवत छुट्टी ली जा सकती है किंतु पूरे तंत्र को शर्मसार करने की छूट नहीं दी जा सकती। कौन नहीं जानता कि थाने से लेकर दफ्तर और डीएम से लेकर कमिश्नर सब चन्याल के लिए फिक्रमंद हो गए थे। लिहाजा मामले को हल्के में नहीं लिया जा सकता। शासन को सेवा नियमों का पालन करवाने की जहां इच्छाशक्ति दिखानी होगी, वहीं एक नजीर भी बनानी होगी, जैसी नजीर बनाने की मंशा मुख्यमंत्री अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के बारे में व्यक्त करते आ रहे हैं। इस मामले ने एक बार फिर शिद्दत के साब्थ यह बात रेखांकित की है कि सीमावर्ती राज्य उत्तराखंड में आपदा के दौर में कैसे ज़िम्मेदार अधिकारियों की जरूरत

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Pahadi Bhula

Author has been into the media industry since 2012 and has been a supporter of free speech, in the world of digitization its really hard to find out fake news among the truth and we aim to bring the truth to the world.